बहुभागीय पुस्तकें >> युद्ध - भाग 2 युद्ध - भाग 2नरेन्द्र कोहली
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रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास....
चार
सरमा ने विभीषण का चेहरा देखा तो धक् रह गईं : अवश्य ही राजसभा में कोई गंभीर बात हो गई है; अन्यथा विभीषण इस प्रकार चिंतित दिखाई न पड़ते।
"क्या हुआ?" विभीषण के बैठने के पश्चात् सरमा ने उनके कंधे पर कोमलतापूर्वक हाथ रखकर मधुर स्वर में पूछा।
विभीषण ने संक्षेप में सब कुछ बता दिया।
"तो?"
"लंका छोड़कर जाना है।"
"कहां?"
"यही प्रश्न तो मुझे मथे जा रहा है।" विभीषण का स्वर धीमा भी था और चिंतित भी, "कुछ समझ में नहीं आता कि कहां जाऊं। सिवाय इस प्रासाद के मेरा और कोई ठिकाना नहीं है। लंका से बाहर जाने की सोचता हूं तो सारे राज्य दो पक्षों में बंटे दिखाई पड़ते हैं : एक रावण के पक्ष में दूसरे विपक्ष में। रावण का विरोधी होकर मैं रावण के मित्र राज्यों में प्रवेश नहीं पा सकता; और रावण का भाई होकर मैं रावण-विरोधी राज्यों में सुरक्षित नहीं रह सकता। अपनी सुंदरी पत्नी और तरुणी-पुत्री के साथ बनवास करने की बात मैं सोच नहीं सकता..." विभीषण ने सरमा को देखा, जैसे उससे सहायता मांग रहे हों।
"हमारी चिंता छोड़ो प्रियतम।" सरमा का स्वर चिंतित किंतु स्थिर था, "राक्षसराज ने केवल आपको लंका-छोड़ने को कहा है। हमारे लिए ऐसा कोई आदेश नहीं है। हम दोनों यहां इसी प्रासाद में सुरक्षित रहेंगी। राक्षसेन्द्र हमसे कुछ नहीं कहेंगे। और यदि ऐसी कोई स्थिति आई तो मैं मंदोदरी भाभी की शरण में चली जाऊंगी। वे मुझे अपमानित नहीं होने देंगी।"
"ठीक कहती हो सरमे।" विभीषण कुछ शांत हुए, "किंतु पूर्णतः निरापद यह भी नहीं है। ऐसी स्थिति में मेरे प्रति सारा आक्रोश रावण तुम पर उतारेगा। बाली ने सुग्रीव की पत्नी के साथ जो कुछ किया, उसे मैं भूल नहीं सकता। और यदि रावण इतनी नीचता न भी करे, तो भी सोचता हूं कि मैं तुम दोनों की सुरक्षा के लिए तुम्हें यहां छोड़ जाऊं तो कहीं, वह तुम लोगों को बंधक न बना ले। ऐसी स्थिति में मैं लंका से बाहर रहकर भी राक्षसराज के आदेशों का बंदी बना रहूं..."
सरमा कुछ कहना चाहती थीं कि किसी ने कपाट खटखटाए।
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